Madhu varma

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लेखनी कविता - काफ़िला तो चले - कैफ़ी आज़मी

काफ़िला तो चले / कैफ़ी आज़मी


ख़ारो-ख़स[1] तो उठें, रास्ता तो चले
मैं अगर थक गया, काफ़िला तो चले

चाँद-सूरज बुजुर्गों के नक़्शे-क़दम
ख़ैर बुझने दो इनको, हवा तो चले

हाकिमे-शहर, ये भी कोई शहर है
मस्जिदें बन्द हैं, मयकदा तो चले

इसको मज़हब कहो या सियासत कहो
ख़ुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले

इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊँगा
आज ईंटों की हुरमत[2] बचा तो चले

बेलचे लाओ, खोलो ज़मीं की तहें
मैं कहाँ दफ़्न हूँ, कुछ पता तो चले

शब्दार्थ

1 झाड़-झंखाड़
2 मर्यादा

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